जब एक आम फलों के बाग़ के मालिक ने अपने बनाए हुए विशाल पंखों को पहनकर आकाश में उड़ना शुरू कर दिया, तो दर्शकों को लगा जैसे कोई पुरानी कहानी जीवित हो उठी है। मनोज बाजपेयी की अभिनय शैली ने फिल्म जुगनूमा: द फेबलहिमाचल प्रदेश में एक ऐसा माहौल बना दिया, जहाँ जादू और रोज़मर्रा की जिंदगी का फासला धुंधला हो गया। ये फिल्म, जिसे राम रेड्डी ने लिखा और निर्देशित किया, सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक अनुभव है — जिसमें जुगनू की चमक, बारिश की आवाज़ और एक गाँव की चुप्पी भी बोलती हैं।
जुगनू की चमक और बाग़ की आग
फिल्म की शुरुआत एक साधारण दृश्य से होती है: एक आदमी अपने बाग़ में घूम रहा है, और अचानक एक पेड़ जल चुका है। इसके बाद पाँच और पेड़ जल जाते हैं। मनोज बाजपेयी के किरदार देव को ये घटनाएँ बेचैन कर देती हैं। वह अपने बाग़ के प्रबंधक दीपक दोबरियाल से पूछता है कि गाँव वाले क्या कर रहे हैं? लेकिन जब वह खुद रात में जुगनूओं के बीच खो जाता है, तो दर्शक समझ जाते हैं कि ये कोई साधारण अग्निकांड नहीं है।
ये फिल्म किसी अपराधी को ढूंढने की कहानी नहीं, बल्कि एक अस्तित्व की खोज है — जिसमें इंसान और प्रकृति के बीच का तनाव, आधुनिकता का दबाव, और पारंपरिक विश्वासों का टूटना छिपा है। तिलोतमा शोमे की भूमिका, जो बच्चों को गाँव की पुरानी कहानियाँ सुनाती है, इस फिल्म की आत्मा है। उनकी कहानियाँ जुगनूमा के शीर्षक का संकेत देती हैं — जुगनू, यानी आग की तरह चमकने वाले कीड़े, जो अपनी मूल अस्तित्व को भूल गए हैं और धरती पर बस गए हैं।
कैमरा, चुप्पी और बिना संगीत की संगीतमयता
फिल्म में कोई तेज़ बैकग्राउंड संगीत नहीं है। अमित त्रिवेदी ने बस एक लुल्ला जैसा थीम बनाया है — जो दिल को छू जाता है। आवाज़ें हैं: चूहे की चीख, गाय की घंटी, बच्चों की हँसी, और दूर से आती हुई बारिश। ये सब फिल्म को एक ऐसा वातावरण देते हैं जैसे आप गाँव के एक कोने में बैठे हों।
एक छोटा सा वीडियो कैमरा, जो शुरू में देव के छोटे बेटे के हाथ में था, आखिरी दृश्य में एक अद्भुत भूमिका निभाता है। वह कैमरा अंत में एक ऐसा दृश्य दिखाता है जिसे आप देख नहीं पाते — बल्कि महसूस करते हैं। क्या देव और उसका परिवार गायब हो गए? या वे जुगनू बन गए? ये सवाल फिल्म खत्म होने के बाद भी दिमाग़ में घूमते रहते हैं।
आलोचनाएँ: एक फिल्म, दो दुनियाएँ
कुछ समीक्षकों ने इसे जादुई दुनिया की एक शानदार रचना बताया। Times of India ने इसे 4/5 दिया, कहते हुए कि "यह एक रहस्य है, जिसमें जादू की छोटी सी चमक है।" Hindustan Times और NDTV ने भी 3 सितारे दिए, खासकर मनोज बाजपेयी के अभिनय की प्रशंसा करते हुए।
लेकिन Bollywood Hungama ने इसे सिर्फ 1.5/5 दिया — "बोरिंग, अजीब और अनावश्यक रूप से धीमी।" दर्शकों की प्रतिक्रिया भी दो धड़ों में बँटी है: एक तरफ लोग कह रहे हैं — "एक फेयरी टेल जैसी आशा की कहानी," तो दूसरी तरफ — "बहुत बोरिंग। बस समय बर्बाद।"
ये विभाजन समझने लायक है। जो फिल्में जल्दी बताती हैं, वे आज के दौर में ज्यादा पसंद की जाती हैं। लेकिन जुगनूमा: द फेबल वह फिल्म है जो आपको बैठे रहने के लिए कहती है — बस देखें, सुनें, महसूस करें। ये फिल्म आपको नहीं बताती कि क्या हुआ, बल्कि आपको खुद सोचने के लिए छोड़ देती है।
प्रकृति के साथ बातचीत
राम रेड्डी ने अपनी पहली फिल्म Tithi में बर्लेस्क का इस्तेमाल किया था। इस बार वह बड़े सवालों की ओर बढ़े हैं — क्या हम प्रकृति के साथ बातचीत करना भूल गए हैं? क्या हमने गाँव की आवाज़ों को दबा दिया है? क्या जुगनू असल में वो हैं जिन्हें हमने अपनी आँखों से छिपा दिया?
ये फिल्म एक बाग़ की कहानी नहीं, बल्कि एक जीवन शैली की कहानी है। जहाँ बारिश के बाद जमीन पर जुगनू निकलते हैं, वहीं आधुनिक दुनिया में इंसान अपने आप को खो देता है। ये फिल्म आपको नहीं बताती कि क्या सही है, बल्कि आपको अपने आप से पूछने के लिए तैयार करती है।
अगला क्या?
अगले कुछ महीनों में ये फिल्म शिक्षा संस्थानों में फिल्म समीक्षा के लिए चुनी जाएगी। कुछ फिल्म अकादमियाँ इसे "नए हिंदी सिनेमा का एक उदाहरण" कह रही हैं — जो अपनी आवाज़ खोज रहा है, न कि बाजार की आवाज़ का अनुसरण कर रहा है।
क्या ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल होगी? शायद नहीं। लेकिन क्या ये भविष्य के निर्माताओं के लिए एक नक्शा बन जाएगी? बिल्कुल। राम रेड्डी ने साबित कर दिया है कि हिंदी सिनेमा में अभी भी जगह है — धीमी गति, खामोशी और जुगनू की चमक के लिए।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
जुगनूमा का शीर्षक क्यों चुना गया?
"जुगनू" हिंदी में जुगनू का नाम है, जो रात में चमकते हैं और अक्सर भारतीय लोककथाओं में आत्मा या अदृश्य शक्तियों का प्रतीक माने जाते हैं। फिल्म में ये कीड़े बस जुगनू नहीं, बल्कि गाँव की आत्मा और प्रकृति के साथ इंसान के टूटे हुए संबंधों का प्रतीक हैं। शीर्षक "जुगनूमा" इसी शब्द का एक भावनात्मक विकृत रूप है — जैसे कोई भूल गया हो कि वह कहाँ से आया।
मनोज बाजपेयी का अभिनय क्यों इतना प्रशंसित है?
बाजपेयी ने देव की भूमिका में एक ऐसा चित्र बनाया है जो बोलता नहीं, बल्कि सांस लेता है। उनकी आँखों में चिंता, शोक और आशा एक साथ दिखती हैं। उन्होंने कोई नाटकीय अभिनय नहीं किया — बल्कि एक ऐसे आदमी को जीवित किया जो अपने घर और जमीन को खोने के डर से टूट रहा है। इस अभिनय को देखकर लगता है कि आप उसके बाग़ में खड़े हैं।
फिल्म की धीमी गति क्यों जरूरी है?
धीमी गति इस फिल्म की शक्ति है। जब आप एक गाँव में रहते हैं, तो समय तेज़ नहीं बहता — वह धीरे-धीरे बहता है। राम रेड्डी ने इसे जानबूझकर किया है ताकि दर्शक जुगनू की चमक, पेड़ों की सांस और हवा की आवाज़ को महसूस कर सकें। ये फिल्म आपको बताने के बजाय, आपको अनुभव करने के लिए तैयार करती है।
क्या फिल्म में जादू असली है या सिर्फ कल्पना?
फिल्म जानबूझकर इस सवाल का जवाब नहीं देती। क्या देव वाकई उड़ा? या वह अपने टूटे दिल की वजह से अपने आप को खो रहा था? क्या जुगनू वास्तविक थे? या वे उसके अंदर की आशा के प्रतीक थे? ये सवाल फिल्म का अंत नहीं, बल्कि उसका आरंभ है। दर्शक खुद को इस रहस्य में खो देते हैं — और यही फिल्म की सबसे बड़ी जीत है।
क्या ये फिल्म किसी वास्तविक घटना पर आधारित है?
नहीं, ये फिल्म किसी वास्तविक घटना पर आधारित नहीं है, लेकिन इसकी जड़ें हिमाचल के गाँवों में हैं। राम रेड्डी ने लंबे समय तक उत्तराखंड और हिमाचल के गाँवों में रहकर लोककथाएँ और आदिवासी विश्वासों को सुना। जुगनू की कहानियाँ, पेड़ों की पूजा, और जमीन के साथ आत्मीय संबंध — ये सब वास्तविक हैं। फिल्म इन्हीं को कलात्मक रूप देती है।
क्या ये फिल्म आपके लिए है?
अगर आप वो दर्शक हैं जो फिल्मों में तेज़ एक्शन, बोल्ड डायलॉग और स्पष्ट समाधान चाहते हैं, तो ये फिल्म आपके लिए नहीं है। लेकिन अगर आप उन फिल्मों को पसंद करते हैं जो आपको चुपचाप बैठकर सोचने पर मजबूर कर दें — जो आपके दिल में एक धुंधली चमक छोड़ जाएं — तो ये फिल्म आपके लिए है। ये वो फिल्म है जिसे आप देखने के बाद एक चाय के साथ बैठकर खुद से बात करते हैं।